अलग किस्म के अभिनेता थे ऋषि कपूर, 'ना' से होती थी 'हां' की शुरुआत
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(अंकिता जोशी). जयप्रकाश चौकसे फिल्म समीक्षक हैं और ऋषि कपूर के पुराने दोस्त भी। ऋषि की रुख्सती से चौकसे साहब दुखी हैं। उनकी यादों में अलग किस्म का ऋषि बसता है। वह अटेंशन सीकर एक्टर भी है और तुनकमिजाज दोस्त भी। अपनी ही दुनिया में मगन रहने वाला इंसान भी है और बच्चों की फिक्र में रात भर बेचैन रहनेवाला पिता भी। लड़कियों के सिरहाने मिलने वाला खूबसूरत नौजवान भी है और जीवनभर सिर्फ नीतू को चाहते रहने वाला सच्चा आशिक भी। ऋषि की ऐसी ही शख्सियत के कुछ अलहदा रंग चौकसे साहब ने कुछ यूं बयां किए।
''मूडी, गुस्सैल, शॉर्ट टेम्पर्ड, मुंहफट...सब थे वो। लेकिन, ऋषि कपूर की शख्सियत को एक लफ्ज में बयां करना हो तो उनकी आत्मकथा का शीर्षक ‘खुल्लमखुल्ला' सटीक शब्द होगा। वे हर बात उतनी ही साफगोई से रख देते थे, जैसी उनके दिल-ओ-दिमाग में आती थी। उनके दोस्त कम ही रहे, लेकिन जो उनके करीबी हैं वो जानते हैं कि ऋषि जितनी जल्दी गुस्सा हो जाते, गलती का अहसास होने पर उतनी ही जल्दी माफी भी मांग लेते। हम भी कई बार उलझे, लेकिन ऋषि कपूर से कोई ज्यादा देर नाराज नहीं रह पाता था। एक दफा मैं और ऋषि रात दो बजे आर के स्टूडियो से निकले। उनकी गाड़ी में थे हम। मैंने कहा मुझे एयरपोर्ट छोड़ दीजिए, पांच बजे मेरी फ्लाइट है। रास्ते में किसी बात पर हमारी कहासुनी हो गई।
उन्होंने मुझे एयरपोर्ट पर ड्रॉप कर दिया। मैं जब यहां इंदौर स्थित अपने घर पहुंचा तो पत्नी ने बताया कि ऋषि जी के तीन फोन आ चुके हैं, आपके लिए। मैंने उन्हें फोन लगाया कि क्या बात हो गई। वो बोले- ‘मैं माफी मांगना चाहता हूं, गुस्से में बहुत कुछ बोल गया।’ गुस्सा तो वो करते थे, बहुत जल्दी और बहुत ज्यादा करते थे, लेकिन माफी मांगने में देरी नहीं करते थे। ऐसे ही थे ऋषि...।''
झूम-झूम कर गीत गाए थे नेहरू स्टेडियम में, सुरीले थे
ऋषि कपूर दो बार इंदौर आए। एक बार 1986 में फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के फंक्शन के लिए। नेहरू स्टेडियम में हुआ था वह कार्यक्रम औरऋषि ने प्रेम रोग का गीत- मैं हूं प्रेम रोगी गाया था। मस्त होकर झूम-झूमकर गाया था। गाने के शौकीन थे ऋषि और ठीकठाक गा लेते थे। सुरीले थे। दूसरी बार वो 2008 में इंदौर आए थे। साहित्यकार हरिकृष्ण प्रेमी जन्म शताब्दी समारोह में शामिल होने। मेरे इस घर में दो बार हम लोगों के साथ लंच कर चुके हैं। खाने-पीने के खूब शौकीन थे। मेरी आखिरी मुलाकात उनसे तब हुई थी, जिस दिन श्रीदेवी की मौत की खबर आई थी।
"ना' से होती थी "हां' की शुरुआत
सुबह उठना, नाश्ता करना, आरके स्टूडियो जाना, जो भी उन्हें जानता था, उसे मालूम था कि ऋषि महीनों तक उन्हें फोन नहीं करेंगे और फिर मिलने पर शिकायत भी करेंगे कि तुम मुझे भूल गए। नाराज हो जाएंगे। रूठ कर चले भी जाएंगे। उन्हें हर चीज़ को पहली बार में 'ना' कहने की आदत थी। जैसे किसी फिल्म का ब्रीफ उन्हें देकर पूछें कि करेंगे, तपाक से कह देते- नहीं करूंगा। फिर थोड़ी देर बाद दोबारा स्क्रिप्ट सुनेंगे। बातचीत करेंगे और फिर ऐसे उत्साह से उस फिल्म के लिए हां कहते, जैसे किसी बच्चे को नया खिलौना मिल गया हो। ताल फिल्म का डिस्ट्रीब्यूशन था मेरे पास। मैंने उन्हें ट्रैक सुनाया। उन्होंने सुना और बोले छोड़ दे यह फिल्म। बकवास है। फिर एक-दो पैग पीने के बाद दोबारा सुना और बोले कमाल है यह ट्रैक। बढ़िया फिल्म है।
नीतू ने अपने लिए कुछ मंगाया और ऋषि तीन सूटकेस में अपने कुत्ते के बिस्किट ले आए
ऋषि को जानने वाला हर शख्स इस बात से राजी होगा कि इतने साल ऋषि कपूर के साथ सुखी दाम्पत्य में रहने के लिए नीतू को वीरता पुरस्कार देना चाहिए। मामूली नहीं था ऐसे मूडी इंसान के साथ निबाह करना, लेकिन नीतू विलक्षण महिला हैं। किसी का स्नेह पात्र बनने की अदभुत क्षमता है उनमें। एक बार ऋषि अमेरिका गए। नीतू ने उनसे अपने लिए कुछ चीजें लाने को कहा। ऋषि तीन सूटकेस लेकर लौटे। नीतू को लगा इस बार तो सारी फरमाइशें पूरी हो गईं, लेकिन जब सूटकेस खोले तो देखा कि ऋषि तीनों सूटकेस में अपने लाडले डॉगी के बिस्किट भर लाए हैं। नीतू बहुत नाराज़ हुई थीं तब।
बिना फर्स्ट ऐड फिल्माते रहे रऊफ लाला के एक्शन सीन
सिनेमा के लिए उनका जुनून बेमिसाल था। तीन साल की उम्र में पहला फिल्म श्री 420 में उन्होंने शॉट दिया था। 63 की उम्र तक कई बेहतरीन फिल्में कीं, लेकिन मेरी पसंदीदा है दो दूनी चार। अग्निपथ में रऊफ लाला का किरदार उनका सबसे अलहदा किरदार था। इस फिल्म के एक्शन दृश्यों में ऋषि को कई चोटें आईं, लेकिन वो बिना फर्स्ट ऐड के शूट करते गए। वो पूरी तरह किरदार में उतर चुके थे और वे एक पल को भी यह महसूस नहीं करना चाहते थे कि वो एक फूहड़, बर्बर कसाई नहीं, बल्कि ऋषि कपूर हैं। अभी अपना बंगला तोड़कर 22 माले की जो इमारत वे बना रहे थे, वह किराए से देने के लिए नहीं है। उसमें 4 फ्लोर पर तो स्टूडियो बनवा रहे थे ऋषि। सिनेमा के लिए ऐसा जुनून था उनमें।
यात्रा पूरी होने पर जब तक उन्हें 'जय माता दी' टेक्स्ट न करते, वो बेचैन रहते
हां वो मूडी थे, शॉर्ट टेम्पर्ड भी कह सकते हैं, लेकिन अपनों के प्रति बेहद फिक्रमंद रहते थे। एक पैक्ट था उनकी फैमिली का, परिवार में से कोई भी कहीं जाता तो टेक ऑफ पर और फ्लाइट लैंड होते ही ऋषि को 'जय माता दी' टेक्स्ट करना होता था। जब तक उन्हें यह मैसेज न मिले वो बेचैन रहते। एक बार रणबीर ने उन्हें फ्लाइट में बैठने के बाद मैसेज भेज दिया, लेकिन टेक ऑफ देर से हुआ। ऋषि ने अनुमान लगा लिया कि अब तो फ्लाइट लैंड हो गई होगी, लेकिन रणबीर का मैसेज नहीं आया। ऋषि ने सारा घर सर पर उठा लिया। लौटने पर रणबीर को उन्होंने डांटा भी कि उसने पहले ही मैसेज क्यों भेज दिया।
आखिर उन्होंने नहीं ली 'रिश्वत'
उन्होंने एक से एक फिल्में कीं जिनमें से मेरी पसंदीदा है मुल्क और दो दूनी चार। लेकिन, एक फिल्म की कहानी जो राज कपूर साहब ने सिर्फ मुझे सुनाई थी, वह फिल्म मैंने ऋषि को करने को कहा था। फिल्म का टाइटल था रिश्वत। एक रिटायर्ड मास्टर था, जिसका बेटा मंत्री बन जाता है। मास्टर उससे मिलने दिल्ली पहुंचता है, लेकिन रास्ते में सामान चोरी हो जाता है। संतरी उसे अंदर नहीं आने देता। वो पीछे के दरवाजे से किसी तरह घर के भीतर पहुंच जाता है और देखता है कि उसका बेटा किसी करोड़पति से रिश्वत ले रहा है। मास्टर उसे बेल्ट से पीटते हुए संसद ले जाता है और कहता है यह तुम्हारी औलाद है। मैंने तो इस शहर में अपना ईमानदार बच्चा भेजा था। लेकिन, ऋषि ठहरे मूडी। उन्होंने यह फिल्म नहीं की।
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